Cows and bulls of indigenous breeds were the backbone of the agrarian system in western Avadh. Even landless families owned cattle, which could be grazed freely on pasture lands or fallow fields. Bulls were reared for agricultural work such as ploughing and threshing grains, and cows yielded milk in limited quantities. Families with more resources reared buffaloes for milk. Milk was consumed directly or as curd. The cream removed from milk was fermented into butter, which was then boiled to make ghee (clarified butter). Ghee, with its longer shelf life, was the main commodity, while only a few farmers were able to sell milk. The byproduct of the butter making process is mattha (buttermilk), which contains all the milk protein. This was freely distributed, and thus poor families had access to a nutritious drink. Matha, mixed with raab, was not only consumed before heavy labour, but was also a crucial source of nutrition during times of scarcity. As pasture lands shrank and fallow land began to be cultivated year-round, the cost of rearing cattle shot up. Agricultural mechanization (such as tractors) reduced demand for bulls, and poor families gave up rearing animals altogether or switched to goats. The opening of milk collection centres (dairies in local parlance) and cattle loans led to dairying - rearing of cows or buffaloes solely for milk. Crossbreeds, such as Jersey and Holstein cows, became popular during this time. While poor families used cattle loans to take up dairying, the collapse of cattle markets post-2017 has left them unable to make ends meet. Even buffalo prices have dropped, as farmers are forced to sell animals at their doorstep rather than in an animal market. Now, dairy farmers sell most of their milk, consuming very little dairy products at home, and even mattha has become a marketable commodity





ऐतिहासिक समय से देसी गाय और बैल, खेती का मूल आधार थे। मवेशियों को बड़ी संख्या में पाला जाता था, और ज्यादातर परिवारों के पास देशी गाय और बैल ज़रुर थे। कुछ भूमिहीन परिवार भी मवेशी पालते थे क्योंकि जानवरों के लिए खाने की कमी नहीं थी - चरागाह बहुत थे और काफ़ी जमीन परती थी। बैल हल खींचते थे और कोल्हू में चलते थे। गाय का दूध सीमित मात्रा में था पर कुछ सवर्ण परिवार ज्यादा दूध के लिए भैंस पालते थे। सक्षम परिवारों के लिए दूध के साथ दही भोजन का अहम हिस्सा था। दूध की मलाई से मक्खन निकलता है जिसको पकाकर घी बनता है। इस प्रक्रिया में दूध का फैट घी में बदल जाता है और दूध का प्रोटीन मट्ठे (माठा) के रूप में रह जाता है। कुछ सवर्ण परिवार घी और खोया बनाकर बेचते थे (जो लम्बे समय तक टिक जाता है), और कुछ दूध भी बेचते थे। लेकिन घी निकालने में बहुत सारा माठा (मट्ठा) भी निकलता है जिसका उस जमाने में कोई बाजार नहीं था। फेंक देने के बजाय माठा, गरीब परिवारों में बाँट दिया जाता था और खेतों में काम कर रहे मजदूरों को भी नाश्ते के रुप में मुफ्त में दे दिया जाता था। बुजुर्ग मज़दूरों ने बताया कि इस माठे को राब (पतला गुड़) के साथ मिलाकर कई गिलास पीने के बाद वे कड़ी मेहनत कर पाते थे। जब अनाज की कमी होती थी कुंवार और हैवत (सर्दी के मौसम) में तब माठे और राब से भूख मिटती थी, और पोषण भी मिलता था। जब हरित क्रांति से खेती में बदलाव आया, तब धीरे धीरे चरागाह और परती जमीन खेत में बदल गए। मवेशियों को हरा चारा मिलना मुश्किल हो गया, और मवेशी पालन महंगा हो गया। ट्रैक्टरों ने बैलों का काम ले लिया, और गरीब परिवारों ने या तो मवेशी रखना छोड़ दिया, या फिर केवल बकरी पालन करने लगे। कस्बों और गाँवों में दूध डेरी (दूध खरीदी केंद्र) 2000 के दशक में खुलने लगे। गाय और भैंस पालन के लिए सरकार से ऋण और सब्सिडी मिलने से लोगों ने दूध का काम बाजार के लिए शुरू कर दिया। क्रॉस ब्रीड ‘जर्सी’ और ‘होलस्टीन’ गाय भी लोग रखने लगे। दुग्ध पालन में पैसा तो मिला, लेकिन गाँवों में दूध की खपत बहुत कम हो गयी। जिनके पास जानवर नहीं थे, उनके लिए तो दूध मिलना मुश्किल था ही, लेकिन जिनके पास मवेशी थे भी, उन्होंने भी दूध का प्रयोग अपने खानपान में लगभग बंद कर दिया और पूरा दूध डेयरी को देने लगे। 2017 के हमारे सर्वे में देखा गया की 27 प्रतिशत परिवार दूध नहीं पी रहे थे और 65 प्रतिशत केवल चाय में डालने लायक दूध ले रहे थे। बच्चों को दूध जैसा पौष्टिक आहार नहीं मिल पा रहा था। दूध बेचने से घी बनाना बंद हो गया था और माठा भी खत्म हो गया था। गौ हत्या को रोकने के लिए लागू किए गए क़ानूनों की वजह से, 2017 से मवेशियों के बाजार पूरी तरह से बंद हो गए, जिस से दुग्ध पालन पर दुष्प्रभाव पड़ा। गाय और भैंस दोनों के दाम गिर गए, और ऋण चुकाने में गरीब परिवारों की आर्थिक स्थिति और ज्यादा कमज़ोर हो गयी।





जानकारी कार्ड


जाति:
क्षेत्र/मिट्टी:
मौसम:


Caste: सभी

Geography: सभी

"हर साल, एक खेत खाली रखा जाता था और जानवर वहाँ चरते थे।"

Caste: दलित

Geography: नदी तट, चारागाह भूमि

"हमारे मवेशियों को चरने के लिए काफी जमीन थी। उस समय हमारे पास बहुत सी गायें थीं।"

Caste: दलित

Geography: सभी

"हमारे गांव में, ब्राह्मणों ने हम दलितों से कहा कि हमें केवल बकरी और सूअर पालने चाहिए, गाय नहीं।"

Caste: सभी

Geography: सभी

"हम दही या मट्ठा के साथ राब (गीला गुड़) का शरबत पीते थे। किसी ने इसे सिखरन कहा, किसी ने दहगर्दा"

Caste: सभी

Geography: सभी

"दूध नहीं बिकता था - घी बिकता था। इसलिए अतिरिक्त दूध घी में बदल लेते थे। इसे खरीदने के लिए व्यापारी दूर-दूर से, कानपुर जैसी जगह से, गांव आते थे।"

Caste: सवर्ण, ओबीसी

Geography: सभी

"मट्ठा नहीं बेचा जा सकता था, इसलिए इसे पीते या किसी को देते थे।"

Caste: सवर्ण और ओबीसी

Geography: सभी

"तब हम जितना दूध पीते थे, उतना अनाज नहीं खाते थे।"

Caste: सभी

Geography: सभी

"हम नाश्ते में दूध या मट्ठे के साथ बासी (बची हुई) रोटी खाते थे।’

Caste: सवर्ण

Geography: सभी

"दलितों द्वारा बनाया गया घी हम ब्राह्मण कभी नहीं खरीदते थे।"

Caste: दलित

Geography: सभी

"मजदूरी के दौरान मट्ठा दिया जाता था"

Caste: सभी

Geography: सभी

"हम मट्ठे के साथ बाजरे की रोटी खाते थे।"

Caste: दलित और ओबीसी

Geography: सभी

"मट्ठा हमें ताकत देता था - हम दो किलो तक मट्ठा पीकर खेतों की जुताई करते थे।"

Caste: सवर्ण और ओबीसी

Geography: सभी

"बाजरे की रोटियों को घी में डुबोकर खाया जाता था।"

Caste: दलित

Geography: सभी

"जब हमारे पास खाने के लिए और कुछ नहीं होता था, तो हम राब के साथ मट्ठा पीते और गुजारा करते थे।"

Caste: सभी

Geography: सभी

"बैलों का इस्तेमाल खेती के काम, कोल्हू (गुड़, तेल के लिए) आदि में किया जाता था।"

Caste: दलित

Geography: चारागाह भूमि

"सभी को अपने मवेशियों को चरागाहों में चराने की अनुमति थी - वास्तव में, कुछ चमार (दलित) चरवाहे के रूप में काम करते थे और कुछ पैसे कमाते थे।"

Caste: सभी

Geography: सभी

"देशी बैल, जो जुताई- खंदाई आदि के लिए उपयोग किए जाते थे, गायों से अधिक महत्वपूर्ण थे, क्याकि यह गाय बहुत कम दूध देती थीं। गायों को चरागाहों में चरने के लिए छोड़ दिया जाता था, जबकि बैलों को अतिरिक्त अनाज खिलाया जाता था।"

Caste: सभी

Geography: सभी

2017 में चार सत्र में चली खान-पान सर्वे में दूध उपभोग के आकडे। इस ग्राफ से पता चलता है कि ज्यादातर परिवार दूध उपयोग नहीं कर रहे थे या बस चाय में थोड़ी दूध डाल रहे थे। सिर्फ 10-15% परिवार में बच्चों को पीने के लिये दूध मिल रहा था।

Caste: सभी

Geography: सभी

"अब हम दूध नहीं पीते हैं, बल्कि हम डेयरी को पिलाते हैं।"

Caste: दलित और ओबीसी

Geography: सभी

"पराग या निजी डेयरी द्वारा मिलने वाला रेट मुश्किल से हमारे खर्चों को पूरा करती है। यही कारण है कि इतने अधिक परिवार मवेशी पालना छोड़ रहे हैं।"

Caste: दलित

Geography: सभी

"बच्चे को भी मुश्किल से ही दूध पिला पाते हैं, चाय में थोड़ा सा ही डाला जाता है।"

Caste: सभी

Geography: सभी

"आजकल बहुत कम लोग मट्ठा पीते हैं। केवल अगहनिया (नवम्बर में एक त्योहार) के दौरान, हम दही वड़ा बनाने के लिए मट्ठा का उपयोग करते हैं।"

Caste: सभी

Geography: सभी

"दूध में ज्यादा मिलावट वसा और एसएनएफ (सॉलिड नॉट फैट्स) रीडिंग बढ़ाने के लिए होती है, ताकि बेहतर रेट मिल सके।"

Caste: सभी

Geography: सभी

"पहले हर कोई देसी जानवरों की परवाह करता था। तब अगर हमारा बछड़ा भी गुम हो जाता तो हर जगह तलाश की जाती थी। अब तो किसी को गाय की भी फिक्र नहीं है।"

Caste: सभी

Geography: सभी

"बैल खेत जोतने और कोल्हू चलाने के काम आते थे, अब बैल किस काम के हैं?"

घटनाक्रम


1970s

जैसे-जैसे भूमि की मांग बढ़ी, 'बंजर भूमि' और अन्य गाँव की भूमि, भूमिहीन परिवारों को आवंटित की जाने लगी या अवैध रूप से बड़े किसानों को हस्तांतरित कर दी गई, या बड़े किसानों द्वारा अतिक्रमण किया गया। इन जमीनों को जानवरों को चराने के लिए इस्तेमाल किया जाता था, साथ ही चकबंदी (भूमि चकबंदी) प्रक्रिया के दौरान, ग्राम समाज को चारागाह भूमि के लिए विशेष रूप से मांग करना पड़ता था, अन्यथा चारागाह की जमीन का आवंटन नहीं किया जाता था। इन जमीनों के कम हो जाने के कारण पशु-पालन की लागत में वृद्धि हुई।

1980s

पराग दुग्ध सहकारी समिति, जिसे 1962 में स्थापित किया गया था, ने सीतापुर शहर में एक दूध प्रसंस्करण केंद्र और मिश्रिख ब्लॉक में डेयरी सहकारी समितियों (DCS) की स्थापना की, जिनमें से एक की स्थापना सहादतनगर में की गई थी। यहां दूध चार रुपये प्रति लीटर के हिसाब से खरीदा जाता था, जो कि अच्छा कीमत नहीं थी और एक रेट तय हुआ। इस प्रकार, सरकार के समर्थन से दूध के लिए बाजार पैदा हुआ, और सहादतनगर के पास के गांवों के लोगों ने कुछ दूध डेयरी को बेचना शुरू कर दिया।

1990s

1990 के दशक से पहले, केवल प्रमुख जाति के परिवार, अमीर और शहरों से जुड़े लोग ही चाय पीते थे। लेकिन नकदी अर्थव्यवस्था में वृद्धि के साथ, टाय के स्टेटस के कारण अधिक लोगों ने चाय खरीदना और उपयोग करना शुरू कर दिया। इसी को साथ मट्ठा की खपत में कमी की शुरुआत हुई।

कई स्वयं सहायता समूह स्थापित किए गए, और उनके माध्यम से मवेशी खरीदने के लिए ऋण प्रदान किया गया। परिवारों ने आय बढ़ाने के लिए गाय पालना शुरू किया।

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2002-03 में, महिलाओं की आय में सुधार के लक्ष्य के साथ, मिश्रिख ब्लॉक की प्रत्येक पंचायत में पूरी तरह से महिला सदस्यों वाली डेयरी सहकारी समितियों की स्थापना की गई थी। इन सहकारी समितियों द्वारा एकत्रित दूध को सीतापुर शहर में प्रादेशिक डेयरी सहकारी संघ (पराग) प्रसंस्करण इकाई को भेजा जाता था। अधिकांश सहकारी समितियों में महिलाएं केवल नाम की सदस्य थीं और पुरुष डेयरी चलाते थे। कुछ ही वर्षों में कई सहकारी समितियां ताजा दूध एकत्र करने और परिवहन की चुनौती को पूरा करने में असमर्थ होने के कारण बंद हो गईं, । लेकिन इतना काम चल रहा था कि डेयरी किसान घर से कुछ ही दूरी पर अपना दूध बेच सकते थे।

2010s

2010 तक केवल पराग ही डेयरी सहकारी समितियों से दूध खरीद रहा था। लेकिन उसके बाद निजी डेयरियों जैसे ज्ञान, मदर डेयरी आदि ने भी दूध खरीदना शुरू कर दिया। पराग से भुगतान में अक्सर देरी होती थी, लेकिन निजी डेयरियों ने अधिक तेज़ी से नकद भुगतान करना शुरू कर दिया। जिससे अधिक लोगों ने दूध बेचना शुरू किया।

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2010 के बाद से, गोरक्षकों के दबाव से देशी गायों की व्यापार में कमा आई। 2017 में, सरकार में बदलाव और बूचड़खानों पर कार्यवाही के साथ, देशी गाय और बैल को बेचने और खरीदने के बाजार ढह गए। किसानों ने देशी गाय और बैल को छोड़ दिया और गायों को पालना बंद कर दिया। अपनी क्षमता के अनुसार जर्सी या होल्स्टीन गाय, भैस या बकरी पालना शुरू किया। आवारा पशुओं की समस्या लगातार बढ़ती जा रही है...

Information Cards
Caste:
Geography:
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Caste: All

Geography: All

How have agrarian relationships with cattle changed over the years in the region? Are families consuming milk products like they used to and, if not, why? Watch this video to find out.

Caste: All

Geography: All

"Each year, one field would be kept empty – saali rakhte - and animals would graze there"

Caste: Dalit

Geography: River banks, pasture lands

"There was plenty of grazing lands for our cattle. We had many cows at that time."

Caste: Dalit

Geography: All

"In our village, the Brahmins told us Dalits that we should only rear goats and pigs, not cattle"

Caste: All

Geography: All

"We drank Gur or raab Sharbat mixed with curd or mattha. Some called it Shikanna, others Dahgarda" – jaggery was mixed with water and buttermilk to make a drink

Caste: All

Geography: All

"Milk was not sold - ghee was. So any excess milk was converted to ghee. Traders would come to the village, from as far away as Kanpur, to buy it"

Caste: Savarna, OBC

Geography: All

"Mattha could not be sold, so it was consumed or given away"

Caste: Savarna, OBC

Geography: All

"Then we didn"t eat so much grain – we drank milk"

Caste: All

Geography: All

"We consumed Baasi (leftover) Roti with milk or mattha for breakfast"

Caste: Savarna

Geography: All

"We Brahmins never bought ghee made by Dalits" (Savarna castes practiced untouchability around ghee)

Caste: Dalit

Geography: All

"When we worked in a big farmer's field, we received mattha while working or before going home"

Caste: All

Geography: All

"We ate bajra ki Roti with mattha"

Caste: Dalit, OBC

Geography: All

"Mattha gave us strength - We would drink 2 kilos of it, then plough the fields"

Caste: Savarna, OBC

Geography: All

"Bajra ki rotis were dipped in ghee and eaten"

Caste: Dalit

Geography: All

"When we had nothing else to eat, we would drink mattha with raab and get by"

Caste: All

Geography: All

"Bulls were used for agricultural work, to operate kolhus (for gur) etc."

Caste: Dalit

Geography: Pasture lands

"Everyone was allowed to graze their cattle in the pastures – in fact, some Chamars (Dalits) worked as herdsmen and earned a small wage"

Caste: All

Geography: All

"Indigenous bulls, which were used for ploughing, threshing etc. were more important than the cows, which gave just a little milk. The cows were left to graze in the pastures, while the bulls were fed extra grains"

Caste: All

Geography: All

Caste: All

Geography: All

Article on the impact of "gau raksha" on farmers in Sitapur dt. https://thewire.in/agriculture/gau-raksha-bovine-economy-agricultural-produce

Caste: All

Geography: All

"Now, we don"t drink milk at home – we feed it to the dairy"

Caste: Dalit, OBC

Geography: All

"The rate given by Parag or by private dairies barely covers our expenses. That is why so many families are giving up rearing cattle"

Caste: Dalit

Geography: All

"Even children barely drink any milk, only a little bit in chai"

Caste: All

Geography: All

"Very few people drink mattha these days. Only during Aghaniya (a festival in November), we use mattha to make dahi vada"

Caste: All

Geography: All

"So much adulteration of milk happens to increase the fat and SNF (Solids Not Fats) readings, so that they get a better rate"

Caste: Dalit

Geography: All

Batra, S M, 1981, "The Place of Livestock in the Social and Economic System of a Village in Haryana", thesis submitted to the Department of Sociology, University of Delhi, quoted in George, S. (1985). Operation Flood and Rural India: Vested and Divested Interests. Economic & Political Weekly, 20(49), Dec 7, 1985

Caste: All

Geography: All

India"s Milk Revolution: Investing in Rural Producer Organizations" - Verghese Kurien, 2007

Caste: All

Geography: All

Postcolonial developments" - Akhil Gupta, 1998, pg 282

Caste: All

Geography: All

"Earlier, one cared about the animals. One would search everywhere for a missing calf. Now, no one is bothered about even a desi cow"

Caste: All

Geography: All

"Bulls were used for ploughing and to operate the kolhu, now what use are bulls?"

Time Line
1970s

As the demand for land grew, 'wastelands' and other village lands began to be allotted to landless families or illegally transferred to big farmers. These lands had been used for grazing. The use of chemical inputs led to a reduction in land left fallow, where animals could graze. Also, during the Chakbandi (land consolidation) process, the village had to ask specifically for grazing lands, otherwise none would be assigned. The loss of these lands led to an increase in the cost of rearing cattle

1980s

Parag milk cooperative, which was set up in 1962, established a milk processing centre in Sitapur town and Dairy Cooperative Societies (DCS) in Mishrikh block, one of which was set up in Saadatnagar. Milk was bought here at Rs. 4/litre, which was a low price. But this created a market for milk supported by the government, and people in villages near Saadatnagar began selling some of their milk to the 'dairy' (as they are known locally)

1990s

Before the 1990s, only dominant caste families, the rich and those with urban connections consumed tea. But with the growth in the cash economy, more people began buying and consuming tea. This coincided with the decline in buttermilk consumption

Many self-help groups were set up, and loans for purchasing cattle were provided through them. Families now began rearing cows for income generation

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In 2002-03, dairy cooperatives consisting entirely of women members were set up in every Panchayat of Mishrikh block, with the goal of improving women's income. The milk collected by these cooperatives was sent to the Pradeshik Dairy Cooperative Federation (Parag) processing unit in Sitapur town. In most cooperatives, women were members in name only and men managed them. Many cooperatives closed in a few years, unable to meet the challenge of collecting and transporting fresh milk. But enough remained functioning so that dairy farmers could sell their milk a short distance from home.

2010s

Until 2010, only Parag was buying milk from the dairy cooperatives. But after that, private dairies like Gyan, Mother Dairy etc. began buying milk as well. Payments from Parag were often delayed, but the private dairies began paying in cash more quickly. More people began selling milk

Since the 2010s, cow vigilantism had cut down on the trade of indigenous breeds. In 2017, with the change in government and crackdowns on slaughter houses, the markets for selling and buying indigenous cattle collapsed. Many farmers, especially small farmers, abandoned their cattle and stopped rearing cows. The stray cattle problem continues to grow...