A wide range of cereal grains (other than wheat and paddy) were grown and consumed in western Avadh. The main cereal grown in winter was jau (barley), which could be cultivated without irrigation. Families in the region used gojai, a mix of wheat and barley, which they ground to make roti. The gojai that richer, dominant caste families consumed had more wheat, while that consumed by poorer Dalit families contained more barley. Chana was also added to this mix to make bejhra ki roti. In the kharif (monsoon) season, bajra (pearl millet), jondhri (jowar, sorghum), saanwa (barnyard millet), kodo (kodo millet) and kakun (foxtail millet) were cultivated. These were usually grown in the less fertile lands of poor farmers and, thus, were often associated with low yields and considered dehati - less cultured food. Additional processing was required for the husked millets (barnyard, foxtail and kodo) - women in particular remember the hard work involved in removing the seven layers of husk around the saanwa grain. However, many older respondents remember these grains fondly, especially feeling more satiated and experiencing good digestion when consuming barley and millets. Millets were cooked in many ways, with recipes changing with caste and geography. These are described in the information cards below. The diversity of cereal grains consumed throughout the year provided communities with different types of carbohydrates, macro- and micro-nutrients. The bran was retained, especially among poorer families, providing them with fibre, fat and micronutrients. However, the aspiration to consume white rice and wheat, the food of the rich, accelerated the decline of more nutritious grains. Further, exclusive state support for paddy and wheat led to the death knell of millets, most of which are no longer grown in the region. Now that millets are being recognised as 'nutricereals' because of their subtantive nutritive properties, some farmers in the region are turning back to growing them with the help of Sangtin Kisan Mazdoor Sangathan, which has been conducting awareness campaigns, farm demonstrations and cooking sessions for villagers.
पश्चिमी अवध में कई प्रकार के अनाज उगाए, और खाए जाते थे। खरीफ (मानसून) के मौसम में, बाजरा, जोंधरी (ज्वार), सांवा, कोदो और काकुन, रबी में जौ और चना। सरकार द्वारा हरित क्रान्ति को बढ़ावा देने से गेहूं और धान पिछले 40 सालों में बहुत प्रचलित हुए हैं। गेहूं और धान की प्रचुर उपलब्धता से धीरे-धीरे मोटे अनाज खत्म होते गए। आज सभी लोग गेहूं की रोटी खाते हैं, लेकिन हरित क्रांति से पहले केवल अकेले गेंहू की रोटी नहीं बनती थी । जौ और गेहूं के आटे को मिलाकर रोटी खाई जाती थी, जिसे ‘गोजई’ कहते थे। सवर्ण परिवारों की गोजई में गेहूं की मात्रा अधिक होती थी, और दलित-मज़दूर परिवारों की गोजई में जौ की मात्रा ज्यादा। गोजई में चने के आटे को मिलाकर ‘बेझरा’ की रोटी बनती थी। मोटे अनाज में सावाँ की रोटी, सब्जी, या दाल के साथ, कोदो के चावल को माठे (मट्ठे) के साथ, काकुन के चावल को कहला के (भून के) और भिगो के नमक के साथ खाते थे। साल भर में विभिन्न मोटे अनाज, अनेक प्रकार से पकाए जाते थे, जैसे सावाँ की खीर आदि। आज भी कई लोग ऐसी चीजों को बड़े चाव से उनके स्वाद, पौष्टिकता और पाचन शक्ति को बढ़ाने की वजह से याद करते हैं। अनाज को घर में ही कूटकर, घर की या गाँव की चक्की पर पिसवाने की वजह से, उसमें फाइबर का अंश बच जाता था जो सेहत के लिए बहुत लाभदायक होता है। आज कल मशीन में अनाज को सफाई के नाम पर घिसने से उसके पोषक तत्व खत्म हो जाते हैं। मोटे अनाज की पैदावार कम होने के बावजूद उसकी ये खासियत थी की वो लगभग हर तरह की जमीन में हो जाता था, भले ही वो जमीन कमजोर और ख़राब क्यूँ ना हो। इस तरह के खेत अक्सर गरीबों के हुआ करते थे। उसकी भूसी निकालने में और उसे पकाने योग्य बनाने में कड़ी मेहनत लगती थी, जो कि औरतों की जिम्मेदारी होती थी। इन कारणों से मोटे अनाज को देहाती और गरीबों का खाना भी माना गया है, जबकि गेहूं और सफेद चावल को अमीरों के खाने का दर्जा दिया गया। हरित क्रांति द्वारा सरकार ने जब गेहूं और धान की पैदावार को बढ़ावा दिया, तो लोगों ने मोटे अनाज को छोड़ दिया। गेहूं और धान केवल उपजाऊ जमीन पर होते थे और और उनकी पैदावार में ज्यादा पानी की जरुरत होती थी। सरकार की मदद से होने वाले समतलीकरण और मेड़बंदी की वजह से, किसानो ने ख़राब जमीनों को उपजाऊ बनाकर गेंहू और धान की खेती शुरू कर दी। किसानों ने मोटा अनाज उगाना बंद कर दिया और धीरे-धीरे यह खान-पान से भी गायब हो गया । आज मोटे अनाज (मिलेट्स) को जब न्यूट्री-सीरियल्स (पौष्टिक आहार) का दर्जा दिया जा रहा है (वर्ष 2023 को इंटरनैशनल ईयर ऑफ मिलेट्स घोषित किया गया है) तब कुछ किसानों ने वापस इस तरफ पहल की है। ‘संगतिन किसान मजदूर संगठन’ भी पिछले सात-आठ साल से इनको बढ़ावा दे रहा है।
Caste: सभी
Geography: सभी
एक समय पर रबी का मुख्य अनाज जौ था। सिंचाई के साधन के बढ़ने से छोटे किसान गेहू उगाने लगे। इस वीडियो में क्षेत्र लोग जौ की खेती, कटाई इत्यादि और इसके खान-पान में उपयोग के बारे में बताते हैं।
Caste: दलित, पिछड़े
Geography: सभी
"पिडवा बनाने के लिये बाजरा, सोंट, मूँगफली और तिल को भूँजकर पीसते थे और गुड़ मिलाकर लड्डू बनाते थे। दो-दो दिन लगातार भूँजते थे। जिन के यहा ज्यादा था वह भुर्जी के यहा भुँजवाते थे । अगर २ पिडवा खा लिये तो पेट भर जाता था । पिडवा महीनों तक रखा जाता था।"
Caste: सभी
Geography: सभी
"हम बाजरा की रोटी मक्खन, घी या माठा (मट्ठा) के साथ खाते थे"
Caste: दलित, पिछड़े
Geography: सभी
"नाश्ते में बासी रोटी खाते थे। जौ, बाजरा या चना के बने मोटी रोटी, जो हाथ से बनते थे और चूल्हे में पकाये जाते थे, दूसरे दिन भी खाने में अच्छा लगता था। गेहू से बने पतली रोटी बासी नही खाये जाते।"
Caste: सभी
Geography: सभी
"खेत में काम करने वाले मजदूरों को चना, जोंधरी (जोवार) या बाजरा उबाल के या भूँज के देते थे। कभी-कभी खेत मालिक भी यही खा लेते थे"
Caste: दलित, पिछड़े
Geography: सभी
"चने का साग उबाल कर उस में चना, बाजरा, सावां और बेर डाल के पकाते थे। इसे सालन कहते थे।"
Caste: सभी
Geography: सभी
"चबेना जौ, मूँगफली, चना, जोंधरी (जोवार), बाजरा या मौठी (मोठ) को भूँजके बनाते थे"
Caste: दलित, पिछड़े
Geography: सभी
"बाजरा को कूट कर चना के साथ पकाते थे खिचड़ी बनाने के लिये"
Caste: दलित, पिछड़े
Geography: सभी
"वाजरा के आटा के साथ चने का साग पकाते थे - इसे आलन कहते थे"
Caste: सभी
Geography: सभी
"सावां का भात साल भर खाया जाता था"
Caste: दलित, पिछड़े
Geography: सभी
"सावां की रोटी गुइया (अर्बी) के सालन के साथ खाया जाता था"
Caste: सभी
Geography: सभी
"हम महरुआ (औरतें) को सवेरे सावां कूटना पड़ता था और संध्या पीसना पड़ता था। सावां के सात परत होते है, यह काम बहुत कठिन था।"
Caste: सभी
Geography: सभी
"शादियों के समय गांव में अन्य परिवारों को काम बाँटा जाता था - किसी के कुछ पसेरी (ढाई किलो) सावां दिया तो किसी को दस किलो सावां कूटने-पीसने के लिये। कभी-कभी औरतें एक दिन में ८० किलो भी पीस लेते थे।"
Caste: सभी
Geography: सभी
"भंडारे में भरने के पहले सावां को कहलते थे। इससे दानों में महक आती और बाद में कूटना भी आसान था।"
Caste: दलित, पिछड़े
Geography: सभी
"हम गेहू कम और जौ, सावां और काकुन ज्यादा खाते थे। सावां और काकुन की कोदई (चावल) अक्सर बनती थी"
Caste: दलित, पिछड़े
Geography: सभी
"कभी-कभी सावां को कहल के, कूट के (छिल्का निकालने के लिये) ऐसे ही खा लेते थे"
Caste: दलित, पिछड़े
Geography: सभी
"बाजरा और जोंधरी (जोवार) फागुन तक खाये जाते थे, उसके बाद सावां को कूट के खाते थे भादों-कुँवार तक"
Caste: दलित, पिछड़े
Geography: सभी
"सावां का छिलका आसानी से निकालने का लिये पानी में उबालके सुखाते थे, फिर उसा कूटते थे"
Caste: सभी
Geography: सभी
"जौ की गूरी - जौ को कूट कर छिलका निकालते थे, फिर कूट के पीसते थे और उस से रोटी या पूरी बनाते थे। गूरी की भात भी बनती थी, वह ठण्डक देती थी।"
Caste: दलित, पिछड़े
Geography: सभी
"गर्मियों में सब्जी मिले तो खाते, नहीं तो नमक मिर्चा के साथ जौ की रोटी खा लेते थे"
Caste: सभी
Geography: सभी
"सेतुआ (सत्तू) आधा जौ और आधा चना के साथ बनता था। जौ और चना को भिगोकर सुखाते थे, और जौ को कूट कर छिलका निकालते थे। फिर दोनों अनाजों को भूँज के पीसते थे। सेतुआ को पानी या दूध या माठा (मट्ठा) में घोल कर गुड़ या चटनी के साथ खाते थे। यह गर्मियों में खाया जाता था।"
Caste: पिछड़े
Geography: सभी
"काकुन का चावल भूँजकर, पानी में भिगोकर स्कूल ले जाते थे, जो ६-७ कि. दूर था। ब्रेक के समय तक वो चावल फूल जाता था और हम बड़े मज़े से खाते थे।"
Caste: सभी
Geography: सभी
"गोजई में जौ, गेहूँ और चना मिला हुआ था। चमरहिया गोजई में जौ ज्यादा और गेहूँ कम थी और गरीब यह खाते थे। रजहेट्टू गोजई में जौ कम और गेहूँ ज्यादा थी, और पैसे वाले लोग यह खाते थे। गोजई से गेहू को अलग करके महमानों को खिलाते थे ।"
Caste: दलित
Geography: सभी
"गरीब परिवार जौ की भूरी खाते थे, मतलब छिल्के के साथ जौ पीस कर खाते थे"
Caste: सभी
Geography: बलूई या दोमट मिट्टी
"ऊपरहार जमीन में हम बाजरा, तिल्ली, मूँग, मौठी (मोठ) और मूँगफली उगाते थे। रबी में इन जमीनों पर जौ और चना मिलाकर छिटक देते थे। हैवतहर (जाड़ो में हल्की बारिश) हुई, तो जौ की फसल ले लेते थे।"
Caste: सभी
Geography: बलूई या दोमट मिट्टी
"अरहर के साथ उरद, जोंधरी (जोवार), सावां, काकुन, मक्का, बाजरा और अन्य फसल बोते थे।"
Caste: सभी
Geography: बलूई या दोमट मिट्टी
"हमारे जमीनों में जौ की उत्पादन बहुत कम थी, बस तीस-चालीस किलो प्रति बिगहा"
Caste: सभी
Geography: बलूई या दोमट मिट्टी
"बाजरा, जोंधरी (जोवार), सावां, काकुन कम बोया जाता था और कम मिलता था"
Caste: सभी
Geography: बलूई या दोमट मिट्टी
"सावां की अच्छी फसल हुई तो एक बिगहा में एक कुन्तल मिलता था।"
Caste: सभी
Geography: सभी
"सावां सावन में बोते थे और भादों-कुँवार में फसल तैयार होती थी।"
Caste: सभी
Geography: सभी
"सावां और काकुन गांव में ही बिकता था"
Caste: दलित, पिछड़े
Geography: सभी
"1979-80 के सूखे में कई लोगों के पुराने, पारम्परिक बीज खत्म हो गये, जैसे बाजरा, मौठी (मोठ), सावां... उस के बाद से हमें बाजार से हाइब्रेड बीज खरीदना पड़ा।"
आज़ादी के बाद वाली दशक में शारदा नहर को बढ़ाया गया, और इस क्षेत्र के कई गांवो तक नहर का पानी पहुँचा। जिन किसानोॆ के खेत तक नहर का पानी पहुँचा (यह ज्यादातर सवर्ण या पिछड़े जातियों के थे), वह मोटा अनाज, धानी (देशी धान जो छिड़का जाता था), दलहन व तिलहन फसलों को छोड़कर रोपित धान, गेहू और गन्ना बोने लगे।
1970 के बाद, सहादतनगर माइनर बढ़ाया गया और अम्बरपुरवा जैसे गांवों तक पहुँचा। यहा के किसान, जो पिछड़े और दलित जातियों के थे, रबी में मिश्रित खेती छोड़कर गेहूँ, गन्ना और मटर बोने लगे। यहा की मिट्टी बलूई थी और नहर का पानी चौमास (मानसून) में नहीं छोड़ा जाता था, इसलिये यहा धान नहीं उगाया गया।
सुन्दरपुरवा और ऐसे कई गांव जहा नहर का पानी नहीं पहुँचा, वहा ट्यूबवेल लगाए गये, जिससे पूरे गांव में सिंचाई का पानी पहुँचता था। यह ट्यूबवेल बिजली पर चलती थी और पानी 15-20 फीट गहराई पर मिलता था। यह ट्यूबवेल कम से कम दस साल तक चले - उस के बाद भूजल का स्तर घटा। इन गांवो में किसान मिश्रित खेती छोड़कर गेहू और गन्ना उगाने लगे।
कृषि विभाग से नए बीज, यूरिया इत्यादि
कृषि विभाग से (ब्लाक स्तरीय कार्यालय के माध्यम से) उन्नत बीज, यूरिया, डी.ए.पी. आदि फ्री या कम दाम में मिलने लगे। बड़े किसान 'आधुनिक' खेती करने लगे और रोपित धान, गेहूं और गन्ना उगाने लगे।
1989 के सीतापुर अनुपूरक गजटियर के अनुसार, 1979-80 के भीषण सूखे ने मिश्रिख तहसील में 1,37,492 हेक्टेयर भूमि को प्रभावित किया। इस दौर में कई पारम्परिक बीज खत्म हो गये, जैसे बाजरा, मौठी (मोठ), सावां और काकुन। किसान सिंचाई की तरफ बढ़े, और सरकारी योजनाओं के तहत बंधे बनने लगे और खेतों की सम्तलीकरण होने लगी। इन खेतों में अब धान, गेहू और गन्ना उगने लगा।
गोमती के तट पर तराई जमीन में धानी (देशी धान) के साथ सावां छिडकते थे। जब पौधे निकलने लगते, तब खेत में पानी भरा जाता था और पटेला (तम्बा लकड़ी) चला देते थे खर-पतवार के नियंत्रण के लिये। बाद में भी जब खर-पतवार बढ़ जाते थे, तो आस-पास की महिलाएँ इसे बटोरते थे क्योंकि यह सिलवारी, लहसुवा जैसे स्वादिष्ट साग थे। 1980 के दशक से यहा के किसान धान के बीज खरीदने लगे और रोपाई पद्धति अपनाने लगे। इससे सावां की बुआई खत्म हो गई और साग मिलना भी बन्द हो गया।
1980 में (सूखे की समय) शरवनपुर के ब्राह्मण किसान बोरवेल लगाना शुरू किया। एक किसान की सफलता देखकर दूसरे भी लगाने लगे। यह बोरवेल डीजल पे चलते थे। सिंचाई के साधन मिलने के बाद यह किसान मिश्रित खेती को पूरी तरह से छोड़ दी।
बोरवेल का प्रकोप बढ़ने लगा। लक्षमणपुर में कुछ यादव किसान 1980 के दशक में ही बोरवेल लगाये, लेकिन उन्हें पानी नहीं मिला। 1990 में किछ और किसानों ने कोशिश की और उन्हें पानी मिला। उस के बाद वे रोपित धान, गेहू और गन्ना उगाने लगे।
2000 के बाद से बड़ी मात्रा में प्लास्टिक पाइप इस्तेमाल होने लगे। एक किलोमीटर दूर से भी सिंचाई का पानी पहुँचने लगा। इन पाइपों से छोटे व सीमान्त किसान के खेत भी सिंचे जा सके। ज्यादातर दलित सीमान्त किसान ही है, और इस दौर में कईयों ने मिश्रित खेती छोड़ दी।
Caste: All
Geography: All
In western Avadh, jau (barley) was the primary cereal grain of the rabi (winter) crop before irrigation became widespread. As villagers in this video describe, jau was processed and cooked in various ways and was an important component of local diets. However, threshing and processing was tedious, and meanwhile expanded irrigation led to a transition to wheat. Barley has disappeared from fields and plates – is this mourned or accepted as a fallout of "progress"?
Caste: All
Geography: All
Kodo millet is a resilient and nutritious grain grown by farmers in western Avadh for generations. In this video, farmers from the region share how they cultivated and consumed this grain, and describe its benefits.
Caste: All
Geography: All
This video from ‘Shades of rural India’ channel profiles ‘Sehat ka Bardana’, a millet enterprise in Sitapur district, UP
Caste: Dalit, OBC
Geography: All
"Pidva was made by roasting and grinding pearl millet, dry ginger, groundnut and sesame, mixing it with jaggery and rolling it into balls. The ingredients for pidva were roasted for 2 days at a stretch. Those who were making more got it roasted by a bhurji. Pidva could be stored for months"
Caste: All
Geography: All
"We ate bajra ki roti with mattha"
Caste: Dalit, OBC
Geography: All
"Thick roti made of barley or pearl millet, left over from the evening before, were eaten in the morning - these were called baasi roti. Thin wheat rotis don't taste as good when left overnight"
Caste: All
Geography: All
"When working in the fields, labourers were given boiled or roasted chana, Jondhri and bajra. Sometimes, even the landowners ate this"
Caste: Dalit, OBC
Geography: All
"To make saalan, we would boil chane ka saag (the greens of the gram plant), and to it add chana, bajra, saanwa and ber"
Caste: All
Geography: All
"Chabena was made by roasting jau, groundnuts, chana, jondhri, bajra, moth bean etc."
Caste: Dalit, OBC
Geography: All
"Bajra was pounded and cooked with Chana to make khichdi"
Caste: Dalit, OBC
Geography: All
"Moti (thick) roti were made of gram, barley, pearl millet etc."
Caste: Dalit, OBC
Geography: All
"Aalan – gram greens cooked with bajra flour"
Caste: All
Geography: All
"Saanwa ka bhaat (barnyard millet rice) was eaten throughout the year"
Caste: Dalit, OBC
Geography: All
"Saanwa ki Roti was eaten with ghuiyya (arbi, taro root) cooked in gravy"
Caste: All
Geography: All
"We women had to pound Saanwa in the morning & grind it in the evening. It has seven layers of husk, so it took so much effort."
Caste: All
Geography: All
"During weddings, work was distributed to other families in the village, e.g. a few kgs of Saanwa were given to each woman to be pounded. Sometimes, women would grind 80 kg and more"
Caste: All
Geography: All
"Saanwa grains were roasted before storage. This made the grains fragrant, and they could be pounded to make rice easily"
Caste: Dalit, OBC
Geography: All
"We ate less wheat and more barley, Saanwa and kakun. Saanwa and Kakun rice was consumed regularly"
Caste: Dalit, OBC
Geography: All
"Saanwa would sometimes be roasted and pounded to remove the husk, then eaten as is"
Caste: All
Geography: All
"Jau and Chana rotis were made thick and by hand"
Caste: Dalit, OBC
Geography: All
"Bajra and Jowar were eaten till Phagun (spring), after that Saanwa was pounded and consumed till Bhadon-Kunwaar (monsoon)"
Caste: Dalit, OBC
Geography: All
"Saanwa was boiled and then dried, then pounded"
Caste: All
Geography: All
"Jau ki guri (barley with husk removed and pounded) was used to make roti. It could also be used to make rice"
Caste: All
Geography: All
"Jau ki dalia (coarsely ground barley) was cooked with Arhar to make khichdi"
Caste: All
Geography: All
"Sattu – roasted and powdered jau and Chana – was mixed with water or milk/buttermilk and consumed in the mornings"
Caste: Dalit, OBC
Geography: All
"Jau ki bhuri – coarse jau flour with the bran – was used by the poor"
Caste: All
Geography: All
"There was more jau and Chana in roti and less wheat"
Caste: OBC
Geography: All
"We went to school 6-7 km away. For us, raw Kakun rice was roasted and soaked in water – we would tie it up in a cloth and take it with us. By lunch time, it would puff up and we ate it with relish."
Caste: All
Geography: All
"Gojai was a mix of barley and wheat. Chamariya gojai, with less wheat and more barley, was consumed by Dalits and the poor, while Rajhatta gojai (more wheat, less barley) was purchased by the rich"
Caste: Dalit, OBC
Geography: All
"Wheat was separated from gojai (mix of barley and wheat) for guests and weddings"
Caste: All
Geography: Sandy or mixed soils
"In uparhar land (uplands) we grew bajra, til, moong, moth and groundnut"
Caste: All
Geography: Sandy or mixed soils
"Arhar was intercropped with urad, jowar, saanwa, kakun, maize, bajra and other crops"
Caste: All
Geography: Sandy or mixed soils
"The yield of jau was very low, sometimes just 30-40 kg / bigha"
Caste: All
Geography: Sandy or mixed soils
"Jau and Chana were mixed and broadcast on upland fields"
Caste: All
Geography: Sandy or mixed soils
If it rained in winter, then jau would be harvested along with other winter crops"
Caste: All
Geography: Sandy or mixed soils
"Less amounts of bajra, jowar, Saanwa and Kakun were sowed, so less was harvested"
Caste: All
Geography: Sandy or mixed soils
"The best harvest of Saanwa would be a quintal per bigha"
Caste: All
Geography: All
"Saanwa was sown in Saavan and harvested in Bhadon-Kunwaar"
Caste: All
Geography: All
"Saanwa and Kodo were sold in the village itself"
Caste: Dalit, OBC
Geography: All
"We lost many of our traditional seeds – bajra, moth, Saanwa during the 1979-80 drought. After that, we had to buy hybrid seeds from the market"
Caste: Dalit
Geography: All
"In the month of Bhadon, we Paasi have a puja where we worship the Saanwa pannicles. Even now, all the Saanwa pannicles in one field of mine go to relatives and friends"
Caste: All
Geography: All
Agriculture data for Sitapur district obtained from Uttar Pradesh Department of Agriculture
Caste: All
Geography: All
From Gibb, H.A.R. The Travels of Ibn Battuta, quoted in A History of Agriculture in India, vol 2, M. S. Randhawa
Caste: All
Geography: All
From: Ferrar, M. L. (1875). The Regular Settlement and Revised Assessment of the District of Sitapur
Caste: All
Geography: All
From: Ferrar, M. L. (1875). The Regular Settlement and Revised Assessment of the District of Sitapur
The Sharda canal was expanded in the decade after independence, and canal waters reached villages in this region. Farmers along the canal, mainly from dominant castes or the richer OBCs/Dalits, switched from mixed crops of millets, pulses and oilseeds to paddy, wheat and sugarcane in the irrigated fields
Canal irrigation further extended
After 1970, the Saadatnagar minor canal was extended and reached villages such as Ambarpurva. Farmers along the extension, mainly OBCs and some Dalits, switched from mixed crops to wheat, sugarcane and peas (matar) in the winter crop. As these soils were sandy and canal water wasn"t available in the monsoon, paddy was not cultivated
Tubewells were installed in villages such as Sundarpurva to provide irrigation to almost all the village lands. These tubewells ran on electricity. and water was available at 10-20 ft. Such tubewells operated successfully for atleast 10 years, and farmers switched from mixed crops to wheat.
Improved seeds and chemical inputs
As improved wheat seeds as well as Urea, DAP and pesticides began to be supplied at subsidized rates, rich farmers began adopting "modern" techniques and switched from mixed cropping to wheat, transplanted paddy and sugarcane
The severe drought of 1979-80 affected 1,37,492 hectares in Mishrikh tahsil, according to the Sitapur Supplementary Gazetteer of 1989. Many traditional seeds were lost at this time, and the drive towards irrigation increased. To provide relief, the government initiated many public works. Bunding and leveling were taken up, and farmers began growing paddy, wheat and sugarcane in these"improved" fields
Changes in cultivation practices
In terai land near the river, barnyard millet was broadcast along with dhaani (indigenous paddy). When the seeds sprouted and grew, the field was flooded and leveled with a"patela" to control weeds. From the 1980s onwards, farmers began transplanting hybrid paddy and using pesticides to control weeds. They stopped growing barnyard millet
In 1980, during the drought, Brahmin farmers in Sharvanpur installed diesel-operated borewells. Their success drove others to install borewells, and switch from mixed crops to transplanted paddy, wheat and sugarcane
Private borewells expanded further. In Lakshmanpur, some Yadav farmers had installed borewells in the 1980s but didn't hit water. In 1990, more farmers tried and some were successful. They began growing transplanted paddy and sugarcane
Plastic pipes, which could be used to transport irrigation water up to a kilometre away, began to be used in the region. This allowed small and marginal farms to be irrigated. This led to transformation of cropping among Dalit marginal farmers.